@ उदय राज मिश्रा
अंबेडकर नगर, 30 नवम्बर। रामचरित मानस में दशानन रावण द्वारा ब्रह्मा जी से लम्बी तपस्या के उपरांत वर मांगने की घटना का सुंदर वर्णन गोस्वामी जी ने किया है। ब्रह्मा जी से वर माँगते समय रावण कहता है–
“हम काहूँ के मरहिं न मारे।
बानर मनुज जाति दुइ बारे।।
कदाचित आज रावण की यही उक्ति पुरानी पेंशन के संदर्भ में राजनैतिक दलों और नेताओं पर बिल्कुल सटीक बैठती हुई चरितार्थ कर रही है।जिसके क्रम में अल्पावधि सेवाओं के बदले जहाँ सांसद व विधायकगण पुरानी पेंशन का अकारण ही भोग कर रहे हैं जबकि लम्बी सेवाओं के उपरांत अवकाशप्राप्त शिक्षकों व कर्मचारियों को नई पेंशन के नाम पर झुनझुना थमाकर सरकारें जनहित के इस मुद्दे से उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी के बावजूद गूंगी बहरी बनी हुई रोटियां सेंक रहीं हैं और कर्मचारी आंदोलनरत हैं,जोकि विचारणीय यक्ष प्रश्न है।यहां यह भी दृष्टव्य है कि एक आँकड़े के मुताबिक 2042 तक जबकि पुरानी पेंशन प्राप्त करने वाले सभी शिक्षक व कर्मचारी कमोवेश रिटायर हो चुके होंगें तो लोगों की क्रय शक्ति घटने से निर्माण क्षेत्र सहित विकास की सभी धाराओं में तंगी की मार आर्थिक मंदी के रूप में उभरेगी।जिससे निजात पाने का केवल और केवल एकमात्र उपाय पुरानी पेंशन को पूर्ववत पुनः जारी करना ही होगा।
उल्लेखनीय है कि पुरानी पेंशन को लेकर उच्चतम न्यायालय एक नहीं अपितु कई निर्णयों में पुरानी पेंशन को कर्मचारियों का मौलिक अधिकार व दीर्घावधि सेवाओं का प्रतिफल बताया है किंतु केंद्र से लेकर प्रदेश की सरकारें जहाँ अपने लिए तो सर्वसम्मति से इसे जारी रखी हुई हैं और जब बात शिक्षकों,कर्मचारियों तथा सेना को छोड़कर अर्धसैनिक व पुलिसबलों की आती है तो चुप्पी साध लेती हैं।अलबत्ता राजस्थान व छत्तीसगढ़ सहित पंजाब की प्रांतीय सरकारों द्वारा अपने अपने राज्यों में पुनः पुरानी पेंशन को रिस्टोर किया जाना भाजपा सहित अन्य दलों द्वारा प्रशाषित राज्यों के लिए किसी तमाचे से कमतर नहीं है।जबकि पश्चिम बंगाल तो सदैव से नई पेंशन का विरोधी रहते हुए आजतक इसकी नोटिफिकेशन ही नहीं जारी किया है।ऐसे में जबकि राजस्थान,छत्तीसगढ़,पंजाब एवम पश्चिम बंगाल के शिक्षकों सहित सभी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन से पुनः आच्छादित कर दिया गया है तो प्रश्न उठता है कि रामराज्य का लॉलीपॉप दिखाने वाली भाजपा की सरकारें अबतक अपने अपने सूबों में इसे रिस्टोर करने से क्यों बच रही हैं,यह प्रश्न विचारणीय है।सत्य तो यह है कि लोकतंत्र में विधायिका द्वारा स्वयम के लिए कर्मचारियों के टैक्स से प्राप्त राशि का इससे बड़ा कोई अन्य नाजायज उपभोग अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है कि कर देने वाला पेंशन से बाहर और जनसेवा करने वाला सभी सुविधाओं का भोगी हो।अतएव समय रहते 01 अप्रैल 2005 से बन्द हुई पुरानी पेंशन प्रणाली को फिर से प्रचलित करना ही वास्तविक लोककल्याण व जनरंजन होगा,न कि नेताओं की झोली भरने से कोई उपकार होने वाला है।
पुरानी पेंशन समाप्ति हेतु वास्तव में जिम्मेदार कौन है?इसका उत्तर तलाशने हेतु 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल जी द्वारा नई पेंशन प्रणाली पर विचार हेतु राष्ट्रस्तरीय मुख्यमंत्रियों की मीटिंग पर सम्यक विचार करना पड़ेगा।दरअसल उस समय उत्तर प्रदेश की गद्दी पर कभी इटावा के माध्यमिक शिक्षक संघ के जिलामन्त्री रह चुके मुलायम सिंह यादव आसीन थे।जिन्होंने केंद्र द्वारा आहूत बैठक में स्वयम न जाते हुए कैबिनेट मंत्री अशोक बाजपेयी को अपना प्रतिनिधि बनाकर प्रतिभाग हेतु भेजा था।गौरतलब है कि कर्मचारियों के लिए जीवन-मरण और नाक का प्रश्न बनी पुरानी पेंशन को लेकर श्री बाजपेयी ने उत्तर प्रदेश में नई पेंशन प्रणाली लागू किये जाने को अंडर टेक कर दिया जबकि इन्हें नई और पुरानी दोनों के विकल्प को चुनना चाहिए था।यह स्थिति यूपी टेट और सीटेट जैसी ही होती,जिसमें बेहतर चुनाव हेतु कर्मचारियों के पास विकल्प होता किन्तु असली भूल यहीं पर हुई।लिहाजा अपने मंत्री द्वारा अंडरटेक करने के बावजूद उस समय मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में ओपीएस जारी रखा और एनपीएस को ठंडे बस्ते में डाल दिया।ध्यातव्य है कि मुलायम सरकार के जाने के बाद मायावती सरकार ने भी इसे जारी रखा और पुरानी पेंशन से कोई छेड़छाड़ नहीं की।शिक्षकों एवम कर्मचारियों के लिए सपा नीत अखिलेश यादव की सरकार उस समय दुर्भाग्यों का पिटारा लेकर आई जब 2016 में भाजपा नीत योगी सरकार आने के पहले ही अपने कार्यकाल के दौरान अखिलेश यादव ने पुरानी पेंशन को 31 मार्च 2005 से बन्द करते हुए एक अप्रैल 2005 को या उसके पश्चात सेवा में आये कर्मचारियों के लिए नई पेंशन प्रणाली को अनिवार्य कर दिया तथा पूर्व सांसदों व विधायकों के लिए ओपीएस को बहाल रखा।कदाचित कर्मचारियों के हितैषी के रूप में ख्यात मुलायम सिंह यादव के ही सुपुत्र ने अपने पिता के कार्यकाल में अंडर टेक की गई नवीन पेंशन योजना को प्रचलित प्रणाली बना दिया,जोकि शिक्षकों एवम कर्मचारियों के लिए किसी काले अध्याय से कमतर नहीं है।
दृष्टव्य है कि पुरानी पेंशन में जहाँ न्यूनतम दस वर्षों की सेवा के उपरांत अंतिम दस महीने के औसत वेतन के पचास प्रतिशत तक पुरानी पेंशन मंजूर होती थी वहीं कर्मचारियों द्वारा जमा भविष्यनिधि उन्हें सौ फीसदी मिल जाती थी किन्तु नवीन योजना में ऐसा बिल्कुल नहीं है।नवीन पेंशन योजना में कर्मचारियों के मूलवतन से न्यूनतम 10 प्रतिशत की कटौती के बदले प्रतिमाह सरकार 14 प्रतिशत अपना योगदान देती है।यह खाता टियर वन कहलाता है।इसके अंर्तगत अवकाशग्रहण करने पर कर्मचारियों को कुल जमाराशि का 60 प्रतिशत भुगतान ही किया जाता है औरकि 40 प्रतिशत धनराशि शेयर बाजारों में लगाई जाती है,जिसको लेकर हमेशा अंदेशा बना रहता है।इस प्रकार कर्मचारी रिटायर होने पर इसी 40 प्रतिशत राशि के आधार पर शेयर मार्केट की दर से कम्पनियों की मनमर्जी के अनुसार बहुत ही अल्प राशि बतौर पेंशन पायेगा,जोकि जीवन निर्वाह हेतु पर्याप्त नहीं हो सकती।यहां रिटायर कर्मियों को मिलने वाली न्यूनतम राशि भी परिभाषित नहीं है जबकि पुरानी पेंशन में इस समय यह राशि न्यूनतम दस हजार रुपये निर्धारित है।
पुरानी पेंशन को लेकर सम्प्रति अटेवा,माध्यमिक शिक्षक संघ सहित पेंशनर अधिकार मंच भी सड़क से सदन तक सरकारों से दो दो हाथ करने को उद्द्यत दिखते हैं।कदाचित किसान आंदोलन के परिणाम स्वरूप वापस कृषि कानूनों के खात्मे से इन कर्मचारी संगठनों को नई रोशनी मिलती दिख रही है।यह भी सम्भव है कि सरकार इतनी जल्दी कर्मचारी संघों की मांगों पर गौर न करे किन्तु निकट भविष्य में बाध्य होकर उसे झुकना पड़ेगा तथा कर्मचारी संघों के लिए आंदोलनरत रहने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं हैं।
वस्तुतः पुरानी पेंशन न केवल अवकाशप्राप्त शिक्षकों व कार्मिकों की बुढ़ापे की लाठी है अपितु इसका देश की विकास दर में भी बहुत बड़ा योगदान है।पेंशन पाने वाला कार्मिक प्रतिमाह अपनी आय के मुताबिक बाजार में निवेश करते हुए विभिन्न प्रकार के उत्पादों को क्रय करता है।जिससे बाजार में तेज़ी बनी रहती है।यदि पुरानी पेंशन को समय रहते नहीं लागू किया गया तो वर्ष 2042 के पश्चात देश में ऐसी मंडी आने की प्रबल संभावना है,जिससे उबरना मुश्किल होगा।