@ उदय राज मिश्रा
अंबेडकर नगर। किसी भी राष्ट्र के समृद्धशाली,शक्तिशाली और सर्वतोभद्र होने के लिए वहाँ के राजनेताओं का जिम्मेदार,जबाबदेह और अपने दायित्वों के प्रति जागरूक होना अपरिहार्य एवम अनिवार्य होता है। राजनेताओं का यह नैतिक कर्तव्य होता है कि वे सत्ताप्राप्ति के लिए जनसामान्य की भावनाओं से न खेलें तथा आस्था,विश्वास और उपासना पद्धतियों पर कोई आघात न करें।इसके अलावा जनता की सेवा और उनकी भलाई हेतु आपदा,विपत्ति,और अन्यान्य विषम परिस्थितियों में सभी प्रकार के वैमनस्य भुलाकर उन्मुक्त भाव से उनकी बेहतरी के उपायों को तलाश करते हुए मुहैया कराएं।किन्तु कोरोना जैसी राष्ट्रीय आपदा के समय में भी जबकि शीत के प्रकोप के बीच रह रहकर मौसमी झंझावातों से आमजन व्यथित हैं,ऐसे में सियासी दलों का आसन्न चुनावों की तरफ ही ध्यान देते हुए सेवाकार्यों से स्वयम को विरत रखना उनकी ओछी मानसिकता और कुटिलता का ही परिचायक है।
यथार्थरूप में यह कहना प्रासङ्गिक है कि किसी भी लोककल्याणकारी राज्य में अपनी असुविधाओं के बदले सुविधा प्राप्त करने का नैसर्गिक अधिकार जनसामान्य का होता है।कदाचित सरकारों के मुखौटे भी इसीओर इशारा तो करते हैं किंतु जिम्मेदारियों से बचते हैं,यही दुखद और सोचनीय है।
देश जबकि कोरोना के नए वैरियंट से दिनोंदिन खतरे के दहाने की ओर बढ़ता जा रहा है,ऐसी विषम परिस्थिति में देश के किसी भी गांव या गली या कस्बे में राजनेताओं द्वारा मास्क और सेनेटाइजर का मुफ्त में खैराती वितरण न किया जाना,शहरों से गांवों तक ठंड से ठिठुरते भिखारियों,गरीबों और असहायों केआवास,भोजन,कम्बल तथा तपते का प्रबंध न किया जाना,कोरोना के खौफ में बन्द विद्यालयों में फिर से अध्ययन-अध्यापन के बाबत कोई ठोस उपाय न सुझाना आदि आदि राजनेताओं के ऐसे स्याह कर्म हैं,जिनके लिए मानवता उनकी ओर कातर नजरों से देखती तो है किंतु इनके हृदय सिर्फ और सिर्फ लोगों को अपने पक्ष में करते हुए अपनी सत्ताप्राप्ति की तरकीबों तक ही सोच पा रहे हैं,जोकि नितांत गैरजिम्मेदाराना कार्य है।
देश विशेषकर आबादी की दृष्टि से सबसे बड़े प्रदेश में आयेदिन निकलती सियासी रैलियां,नुक्कड़ सभाएं,पदयात्राएं और दफ्तरों के घेराव आदि ऐसे चिंतनीय उदाहरण हैं जिनमें कोरोना की किसी गाइड लाइन का अनुपालन नहीं किया जाता है।जनसेवा और लोककल्याण का दम्भ करने वाले राजनेता अपने खासमखास समर्थकों से भी मास्क और सेनेटाइजर का प्रयोग करवाने में अक्षम दिख रहे हैं।जिनके सिर पर जनसामान्य की बेहतरी के दायित्व हो,उनका इस प्रकार लापरवाहीपूर्ण कृत्य देश को कहाँ ले जाएगा ,यह विचारणीय प्रश्न है।
कोरोनाकाल हो,या बाढ़ की स्थिति या गरीबों को गैस सिलिंडर,घर घर बिजली औरकि मुफ्त में राशन वितरण हो आदि महत्त्वपूर्ण मुद्दे जो आज विचारणीय हैं कदाचित उनको तो आज़ादी के 75 वर्षों में बहुत पहले ही हल होना चाहिए था किंतु ऐसा हुआ नहीं।अतः यदि आज कोई सरकार जब ऐसी लोककल्याण की योजनाओं को लागू भी कर रही है तो उसमें भी अड़ंगा लगाने का कार्य स्वयम को विरोधी कहने वाले सियासी दल कर रहे हैं,जोकि सर्वथा अनुचित है।
सत्य तो यह है कि देश की सुरक्षा,विदेशनीति,किसानों की बेहतरी,शिक्षा व्यवस्था में सुधार,स्वास्थ्य सेवाओं में चिकित्सकों सहित कार्मिकों की उपलब्धता,भूमिसुधार,जलवायु परिवर्तन,पर्यावरण और खैराती प्याऊ,मुफ्त चिकित्सकीय परीक्षण,पुरानी पेंशन की बहाली,फर्जी राशन कार्डों का निरस्तीकरण,आंगनबाड़ी केंद्रों की निगरानी व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण,सड़क,बिजली,कानून व्यवस्था इत्याद मुद्दों का राजनैतिक दलों द्वारा एजेंडों तक इतिश्री करना इनसे पिंड छुड़ाने जैसा है।आज का दौर सिर्फ और सिर्फ युवाओं की सोचने की क्षमता को पंगु बनाते हुए जाति, धर्म, वर्ग,भाषा,समुदाय और बिरादरीवाद को बढ़ावा देते हुए सत्ताप्राप्ति तक ही सिमटता जा रहा है।जिसके लिए सभी सियासी दल अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते।
उदाहरण के तौर पर यदि मुफ्त में राशन वितरण व्यवस्था पर चर्चा की जाए तो 60 प्रतिशत से अधिक अपात्रों को मिलने वाला राशन सीधे सीधे सियासी नेताओं की करतूतों का प्रतिफल है।लिहाजा वाजिब गरीब अपना हक पाने से आज भी वंचित हैं।सियासी दलों के ही संरक्षण में आंगनबाड़ी केंद्रों द्वारा बच्चों को दिए जाने वाला पुष्टाहार पशुओं तक पहुंच रहा है।फ्री में बोरिंग और बहुत सी योजनाएं सिर्फ राजनैतिक लोगों की जेबी बनकर रह गईं हैं।जिनपर चर्चा करने से सभी दल बचते हैं।कदाचित जनकल्याणकारी योजनाओं में घपलेबाजी को उजाकर करना भी तो प्रतिपक्षी सियासी दलों का ही प्रमुख कर्तव्य है किंतु राजनीति तो तब सैफई में नृत्य करती है जब मुज्जफरनगर जलता है,यही देश की दुर्गति का मुख्य कारण है जिसपर जनसामान्य भी मौन हो जयकारे लगाने को उद्यत है।
प्रश्न जहाँतक लोकतंत्र में चुनावों की अपरिहार्यता का है तो ये भी देशकाल की परिस्थितियों से ऊपर नहीं हैं।संविधान में ऐसी व्यवस्थाएं हैं जिनके आधार पर स्थिति सामान्य होने तक चुनावों को स्थगित रखा जा सकता है।दुर्भाग्य से यहां के सियासी नेतागण सत्ता के लिए इतने उतावले हैं कि विद्यार्थियों की पढ़ाई बन्द करवाते हुए चुनाव करवाने के हिमायत करते हैं।जबकि पढाई आवश्यक है और चुनावों को जून तक टाला जा सकता है। अतएव यह कहना कत्तई ग़ैरमुनासिब नहीं होगा कि आज के सियासी दलों की संवेदना दिनोंदिन मरती जा रही है।जिससे वे अपनी जिम्मेदारी,जबाबदेही और दायित्वों से दूर भागते जा रहे हैं,जोकि एक निराशाजनक स्थिति कही जा सकती है।