अंबेडकर नगर। सृष्टि के प्रारम्भ से आजतक स्त्रीशक्ति और मातृसत्ता की प्रतीक नारी के जीवन का प्रारंभिक 18 वर्षीय काल उसके बालिका स्वरूप को लेकर जाना जाता है।जिसमें शैशव,बाल्यकाल और कैशोर्य जीवन तीनों समवेत भाव में समाहित होते हैं।यही वो समय होता है जिसमें बालिकाओं को शिक्षा,स्वास्थ्य,शारीरिक परिवर्तनों,लैंगिक असमानताओं और अन्य विभिन्न प्रकार के भेदभावों का शिकार ज्यादातर होना पड़ता है।हालांकि हालिया दशकों में बालिकाओं के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य,लैंगिक असमानताओं व अन्य उत्पीड़नों में व्यापक कमी आयी है तथापि स्वस्थ व समृद्ध समाज के नवनिर्माण तथा उत्कर्ष हेतु बालिकाओं को विभिन्न प्रकार से प्रोत्साहन प्रदान किये जाने की अभी भी आवश्यकता है।जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सहित अन्य विशिष्ट उपलब्धिप्राप्त महिलाओं को प्रतिमान भी माना जा सकता है।
वस्तुतः भारत में मुगलों के आगमन से पूर्व स्त्रियों को शिक्षा,यज्ञ,हवन आदि में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे।हिंदुओं की विवाह पद्धति यह प्रमाणित करती है कि सप्तपदी के सात श्लोकों की शर्तें स्त्रियों को पुरुषों के बराबर हक प्राप्त थे।प्राचीन काल में घोषा,अपाला,गार्गी और गुरु पत्नियां आश्रमों में बटुकों की शिक्षा दीक्षा में महत्त्वपूर्ण योगदान देती थीं।किन्तु मुगलों के आक्रमण के पश्चात मुगलों द्वारा हिन्दू राजाओं की पराजय तथा मलेच्छो के हाथों गुरुकुलों और विश्विद्यालयों को छिन्नभिन्न करने तथा हिन्दू स्त्रियों के साथ व्यभिचार किये जाने और हिन्दू कन्याओं को गुलाम बनाकर बेंचने की कुत्सित घटनाओं ने इतिहास में बालिकाओं खासकर स्त्रीजाति को शताब्दियों पीछे गर्त में धकेल दिया।जिसमें से वह आज भी निकल नहीं पा रही है,अलबत्ता उसकी कोशिशें बद्दस्तूर सतत जारी हैं।
बालिकाओं के लिए न केवल मुगलों का आक्रमण व उनका भय अपितु पुरुष प्रधान भारतीय समाज भी बहुत हदतक उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है।भारतीय समाज में पुत्रों को पिंडदान और उत्तराधिकारी तथा पुत्रियों को पराया धन माने जाने से भी समाज इनकी शिक्षा, सेवा और स्वास्थ्य आदि को लेकर कभी जागरूक नहीं रहा।इसके अलावा यौन उत्पीड़न,लैंगिक असमानता,तीन तलाक,हलाला, रेप और अन्य विभिन्न प्रकार के अपराधों के चलते भी बालिकाओं को शिक्षा और सेवा के पर्याप्त अवसर कभी भी प्राप्त नहीं हुए।यही कारण है कि आजादी के 75 वर्षों बाद भी नारी सशक्तिकरण और बालिका दिवस मनाए जाने की प्रासंगिकता समीचीन लगती है।
ध्यातव्य है कि वैश्विक स्तर पर बालिकाओं को बेहतर शिक्षा,सेवा के अवसर,स्वास्थ्य,सुरक्षा और विभिन्न प्रकार की असमानताओं से निजात दिलाने हेतु प्रतिवर्ष 11 अक्टूबर को विश्व बालिका दिवस मनाया जाता है।जबकि भारत में वर्ष 2008 से महिला एवम बाल विकास मंत्रालय,भारत सरकार द्वारा प्रतिवर्ष 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है।इसी दिन पूर्वप्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहलीबार केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री बनी थीं।अतः पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को रोल मॉडल मॉनते हुए उनके प्रथम बार पीएम बनने की तिथि 24 जनवरी बालिका दिवस के रूप में वर्ष 2008 से ख्यात है।
बालिका दिवस पर “पढ़ी लिखी नारी,घर की उजियारी”,”रक्खो इसका पूरा ध्यान,बेटी-बेटा एक समान” आदि श्लोगनों के माध्यम से जनजागरण करते हुए समाज में बालिकाओं के प्रति अंधविश्वासों,लैंगिक असमानताओं,बाल विवाह व अन्य अपराधों को समाप्त करने हेतु विविध कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।
बालिका दिवस की प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में इंदिरा अवार्ड से सम्मानित दिल्ली सरकार के ख्यातिप्राप्त शिक्षाशास्त्री ज्ञान सागर मिश्र के अनुसार जिस प्रकार बीज की स्वयम में कोई सत्ता नहीं होती।बीज तबतक सृजन के योग्य नहीं होता जबतक उसे भूमि का सानिध्य नहीं मिलता।उसीप्रकार पुरुष रूपी बीज जबतक मातृ स्वरूपा स्त्री रूपी बालिकाओं के उत्कर्ष की कामना नहीं करेगा तबतक समाज का उत्कर्ष नहीं हो सकता।उनके अनुसार समाज,राष्ट्र और स्वयम पुरुष के उत्थान में सबसे बड़ी भूमिका मातृशक्ति की होतीहै।अतः बालिकाओं को शिक्षा,क्रीड़ा,स्वास्थ्य,सेवा,सुरक्षा,सम्मान और विकास के समान अवसर प्रदान किया जाना समय की नजाकत व वक्त की मांग है।
बालिकाओं के उत्कर्ष के बाबत शिक्षाशास्त्री प्रधानाचार्य उमेश कुमार पांडेय बालिकाओं की सम्पूर्ण शिक्षा मुफ्त और प्रत्येक परीक्षा को इंतिहान शुल्क से मुक्त किये जाने की बात करते हैं जबकि प्रधानाचार्य कप्तान सिंह बालिकाओं को हर स्तर पर भरपूर सहयोग व अवसर उपलब्ध कराए जाने के साथ ही साथ महिलाओं से भी आत्ममंथन करते हुए बेटे और बेटियों में फर्क करने की आदत छोड़ने की आवश्यकता बताते हैं।
इसप्रकार सारसंक्षेप में कहा जा सकता है कि महिला सशक्तिकरण की वैश्विक प्रतीक पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सत्ता संभालने के उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष 24 जनवरी को आयोजित बालिका दिवस देर से ही सही किंतु एक उचित सकारात्मक कदम है।निःसन्देह इस दिन की प्रासंगिकता तभी सार्थक होगी जब समाज में बालिकाओं को भेदभावरहित अवसर व सुविधाएं समान रूप से प्राप्त हों।