अंबेडकर नगर। राजनीति में नैतिकता का कोई स्थान नहीं होता,वैसे तो यह प्रतिष्ठापित यथार्थ सत्य है,किन्तु राजनीति जब निहित स्वार्थों की पूर्ति के साधनमात्र बनकर रह जाये तो सामाजिक भाईचारे को जो क्षति पहुंचती है उसकी भरपाई कभी भी सम्भव नहीं होती।कहना अनुचित नहीं होगा कि आज सत्ताप्राप्ति के लिए आतुर राजनैतिक दलों द्वारा जिसप्रकार धार्मिक व जातीय समीकरणों को साधते हुए हथकंडे अपनाये जा रहे हैं वे भले ही उनके उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हों किन्तु सत्य तो यही है कि हमारी गंगा जमुनी तहजीब का तानाबाना एकबार फिर तारतार होता जा रहा है और द्रोपदी के चीरहरण दृश्य की तरह आज तमाम जिम्मेदार लोग मौन हैं,जोकि चिंतनीय यक्ष प्रश्न है।
भारतीय संस्कृति वैसे तो समावेशी प्रकृति की है।यहाँ चाहे कोई आक्रांता बनकर आया या फिर पर्यटक बनकर,जो भी आया वह यहीं का बनकर हो गया।मामूली परिवर्तनों के साथ इसने सबको अपने में समाहित करते हुए कभी भी अपने स्वरूप को स्वयम से अलग नहीं किया।यही कारण है कि इसके शाश्वत जीवंत स्वरूप के चलते विश्व के तमाम पंथ और मत यहाँ जीवित तो रहे किन्तु कभी भारतीय सँस्कृति से इतर स्वयम को प्रतिष्ठापित नहीं कर पाये।जिसके फलतः गांवों से नगरों तक विभिन्न मतावलम्बी अपने अपने पंथों और रीति रिवाजों का स्वतंत्रतापूर्वक पालन करते हुए एकदूसरे के साथ आनंदपूर्वक रहते हैं किंतु इनके सुख समृद्धि और पारस्परिक सम्बन्धों पर जबजब आंच आयी है तबतब सियासत ने ही चूल्हों की आग बुझाकर दिलों की आग को भड़काया है।इसतरह सियासत भारतीय समाज मे तानेबाने को जर्जर से जर्जर करने वाली सुरसा से अधिक और कुछ नहीं दिखाई देती है।
आज विभिन्न टेलीविजनों,समाचारपत्रों और सोसल मीडिया के प्लेटफार्मों पर केवल और केवल अगड़ों बनाम पिछड़ों,हिन्दू बनाम मुस्लिम,पण्डित बनाम ठाकुर,शिया बनाम सुन्नी और मंदिर बनाम मस्जिद तथा चर्च आदि मुद्दे ही लोगों के लिए चर्चा के मुद्दे बने हुए हैं।जिससे समाज में जातीय,धार्मिक और विभिन्नता आधारित वर्गीकरण तेज़ी से बढ़ता जा रहा है।जिससे लोगों में एकदूसरे के प्रति द्वेष,नफरत,घृणा और कटुता की भावनाएं ही निरंतर बढ़ती दिख रहीं हैं।लिहाज़ा हमारा सदियों का भाईचारा तारतार होता दिख रहा है और सियासत अपनी रोटियां सेंकती जा रही है,जिम्मेदार मौन हैं,आखिर क्यों?यह सोचनीय है।
धर्म और राजनीति का आपस में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है।धर्म जहाँ योग्य नागरिकों के निर्माण का सशक्त माध्यम है वहीं राजनीति उन्हें राष्ट्रप्रेम की भावना से ओतप्रोत करते हुए समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र के निर्माण में योगदान करने योग्य बनाती है।किंतु आज जातीय नेताओं को तरजीह दिए जाने के कारण ओवैसी और नाहिद हसन जैसे मुसलमानों के, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे मौर्य,मुराव,कुशवाहा और शाक्यों के,ओम प्रकाश राजभर जहां भरों के,जयंत चौधरी जाटों के और अखिलेश यादव अहीरों के जातीय ठेकेदार बनते जा रहे हैं वहाँ यह प्रश्न विचारणीय हो जाता है कि आखिर देश का क्या होगा?क्या जातीयता के सहारे सियासत की सीढ़ियां चढ़ना ही राजनीति है या फिर इन राजनेताओं के लिए कुछ और भी सोचनीय कार्य शेष हैं।कदाचित जातीय नेताओं ने जितना नुकसान भारतीय सामाजिक तानेबाने का किया है औरकि अब भी कर रहे हैं उतना तो पड़ोसी देशों की गुप्तचर एजेंसियां भी विभाजन और ध्रुवीकरण नहीं करवा पायीं हैं।इसप्रकार यह स्थिति अत्यंत भयावह और राष्ट्रीय एकता के प्रति विकट समस्या ही कही जा सकती है।
वस्तुतः हालिया दशकों में भारतीय राजनीति मंदिर-मस्जिद,हिन्दू-मुसलमान और अगड़ों-पिछड़ों आदि के बीच ही सिमटकर रह गयी है।जिससे लोगों को अन्य आवश्यक मुद्दों के बाबत सोचने का समय ही नहीं मिलता।स्वास्थ्य,शिक्षा,चिकित्सा,सड़क,बिजली,पुरानी पेंशन की बहाली,जनकल्याण की योजनाओं और लोकरंजन के मसलों पर आज न कहीं डिबेट होती है और न सोशल मीडिया पर ही लोग इनकी चर्चा करते हैं।हर खाशोआम सुबह से राततक केवल इन्हीं जातीय व धार्मिक मुद्दों पर फिजूल की चर्चाओं में अपनी ऊर्जाओं को व्यय करते हुए दिनोंदिन असल मसलों से दूर होता जा रहा है।जिससे फटेहाली और तंगहाली का कोई पुरसाहाल नहीं है जबकि सामाजिक सौहार्द दिनोंदिन खत्म होता जा रहा है।जिससे समाज में मौलवियों और जातीय धार्मिक नेताओं की शान बढ़ती जा रही है,जबकि ऐसा होना सामाजिक तानेबाने के खात्मे की निशानी है। अतः समाज के शिक्षकों,समाजसेवियों,मुल्लाओं,मौलवियों,पुजारियों,वकीलों,पत्रकारों और हर शहरी का आज सबसे बड़ा राष्ट्रीय कर्तव्य भारतीय सामाजिक तानेबाने की रक्षा करना ही प्रतीत होता है, जिसके बिना हमारा खुद का अस्तित्व नहीं रहेगा और सियासत श्मशान पर भी जश्न मनाया करेगी।