कदाचित उक्त पंक्तियां स्वामी विवेकानंद जी के अद्वेत वेदांत दर्शन और उनके शिक्षादर्शन का भी मूलमंत्र ही हैं।स्वामी जी स्प्ष्ट शब्दों में कहा करते थे कि समस्त प्रकार की शक्तियां शरीर में विद्यमान होती हैं।जिनका बाह्य प्रस्फुटित होकर पूर्णता को प्राप्त करना ही वास्तविक शिक्षा कहलाता है।शिक्षा वह नहीं जो पुस्तकों में लिखी हुई रटन्त हो बल्कि शिक्षा वह होती है जिसके द्वारा चारित्रिक,नैतिक,मानसिक,सामाजिक और प्राणिमात्र के प्रति संवेदनात्मक भावनाओं का विकास होने से व्यक्ति जीवन की समस्याओं से मुक्ति हेतु संघर्ष हेतु स्वयम को प्रस्तुत करता है।इसप्रकार कहा जा सकता है कि स्वामी विवेकानंद एक दिव्य स्वरूप से परिपूर्ण पूर्ण मानव निर्माण के प्रबल समर्थक तथा राष्ट्रीयता के उन्नायक महामानव थे।
जैसा कि यह सर्वविदित है कि 1863 में तत्कालीन कलकत्ता में जन्मे स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्रनाथदत्त था जोकि 6 वर्ष की अवस्था में कलकत्ता स्थित दक्षिणेश्वर महाकाली मंदिर के पुजारी स्वामी रामकृष्ण के सम्पर्क में आये थे।जिसके पश्चात 1886 में अपने गुरु के गोलोकगमन के उपरांत उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना करते हुए आजीवन राष्ट्रोत्थान तथा मानव निर्माण करने का व्रत ले लिया था।स्वामी विवेकानंद पढ़ने में इतने कुशाग्र थे कि जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान हैस्त्री ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि नरेंद्रनाथदत्त जैसा मेधावी व कुशाग्र विद्यार्थी उन्होंने दुनियां के औरकि जर्मनी के किसी भी विश्वविद्यालय में कभी नहीं देखा।विश्व स्तर पर भारतीय दर्शन,धर्म और संस्कृति की श्रेष्ठता का परचम फहराते हुए 1893 में अमेरिका के शिकागो में हुए विश्व धर्म संसद में उनके दिए गए व्याख्यान जहां पश्चिम को भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता से परिचित कराया वहीं वसुधैव कुटुम्बकम तथा विश्व बंधुत्व की भारतीय संकल्पना को भी वैश्विक पहचान दिलाये।भारतीय योग को दुनियां में सर्वप्रथम प्रसारित करने वाले भी स्वामी विवेकानंद ही थे।उनकी लिखी पुस्तक “राजयोग” पश्चिम में अबतक सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक है।
स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व अत्यंत विराट था,जिसे शब्दों में व्यक्त करना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा ही है।उनके दर्शन,उनकी शिक्षाएं और उनके विचार सर्वकालिक तथा सर्वदा प्रासङ्गिक हैं।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार सफलता का मूलमंत्र संघर्ष है।वे कहा करते थे कि सूक्ष्मतम परमाणुओं,अणुओं से लेकर सूर्य,चन्द्र और धरती सबकेसब पारस्परिक संघर्षरत होकर मुक्ति हेतु सतत प्रयासशील हैं।जैसे ऊर्जा की अधिकता से कोई भी इलेक्ट्रान अपनी कक्षा से ऊपरी कक्षाओं में चला जाता है औरकि अंत में मुक्त हो जाता है उसीप्रकार मनुष्यों को भी अपनी आत्मशक्तियों का सतत जागरण करते हुए आंतरिक ऊर्जाओं का संवर्धन करना चाहिए।संघर्ष का परिणाम सफलता और मुक्ति है।जिसके लिए मनुष्य को ईर्ष्या,द्वेष से मुक्त होकर समवेत स्वरों में राष्ट्र की भाषा बोलनी चाहिए।दिलचस्प बात यह है कि अपनी बात के समर्थन में स्वामी जी कहा करते थे कि 40 लाख अंग्रेज 300 लाख भारतीयों पर महज इसीलिए राज कर रहे हैं क्योंकि वे सब राष्ट्र की भाषा बोलते हैं जबकि हम भारतीय एक दूसरे की टांग खींचने में आनंद की अनुभूति करते हैं।इसप्रकार स्वामी जी प्रबल राष्ट्रवाद के साथ ही साथ मनुष्यों के वैचारिक साम्य के भी धुर समर्थक थे।
प्रश्न जहाँतक शिक्षा और मानव निर्माण का हो तो वहां स्वामी जी के दर्शन चिर जीवंत हैं।स्वामी जी के अनुसार यह सम्पूर्ण विश्व जिसकी सत्ता है,वही ब्रह्म है,वही ब्रह्म जब मानव शरीर में जीव बनकर मूर्तरूप धारण करता है तो वही आत्मा कहलाती है।इसप्रकार जीवात्मा स्वयम में परमात्मा का ही अंश है।इसे ही स्वामी जी अद्वेत कहते हुए एकोहम द्वितीयोनास्ति सम्बोधित करते थे।उनके अनुसार मनुष्यों के अंदर दिव्यता आत्मा के चलते है।आत्मा न तो पराजित हो सकती है और न मारी जा सकती है।अतएव मनुष्यों को मृत्यु एवम पराजय से भयभीत हुए बिना ही सदैव संघर्षों के पथ का अनुसरण करना चाहिए।अपनी कविता “द सांग ऑफ फ्रीडम” में स्वामी जी लिखे हैं कि जिसप्रकार चुटहिल सर्प अपना फन पूरी तरह फैलाकर शत्रुओं पर प्रहार करता है,अग्नि कुरेदी जाने पर वनों को जलाकर स्वाहा कर देती है,घायल सिंह की दहाड़ से निर्जन मरुस्थल भी सिहर जाते हैं तथा बादलों के सीने को आकाशीय बिजली जब फाड़ देती है तो घनघोर बारिश होती है।उसीप्रकार मनीषी लोग भी जब जब व्यथित, उद्वेलित और भीतर से चुटहिल होते हैं तो अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन करते हुए अद्वितीयता को प्राप्त करते हैं।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार चाहे घनघोर घटाएं छायी हों, पथ में पगपग कठिनाई हो,घटाटोप अंधेरे हों, सामने मृत्यु का भय हो किन्तु फिर भी मनुष्यों को कर्तव्यपथ से डिगना नहीं चाहिए।उन्हें अपने भीतर दिव्य शक्ति की अनुभूति करते हुए कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने हेतु पलायन की जगह प्रयाण के मार्ग को चुनना चाहिए।ऐसा तभी होगा जब हर कोई अपने आपको जानेगा,अपने भीतर दिव्य शक्ति की अनुभूति करेगा।यही कार्य बाह्य शिक्षक को करना चाहिए।ऐसी ही शिक्षा देनी चाहिए जिससे कि विद्यार्थियों की आंतरिक आत्मशक्तियाँ प्रस्फुटित हो अंदर के शिक्षक का बाह्य प्रकटीकरण करें और वह जीवनमूल्यों को अवधारित तथा आत्मसात करते हुए संघर्षों से मुक्तितक जी जान से जुटा रहे।
स्वामी विवेकानंद आजकल प्रचलित पुस्तकीय व रटन्त शिक्षाप्रणाली के धुर विरोधी थे।उनके अनुसार पुस्तकीय शिक्षा चारित्रिक निर्माण नहीं करती बल्कि यह सूचनाओं का सम्प्रेषण मात्र होती है।स्वामी जी उत्तम नैतिक चारित्रिक विकास को किसी भी राष्ट्र के योग्य नागरिकों के निर्माण हेतु अत्यावश्यक मानते थे।शिकागो धर्म संसद में उनके द्वारा दिया गया व्याख्यान वैश्विक स्तर पर नागरिकों के चरित्र निर्माण के साथ ही साथ राष्ट्रीयता के विकास की उन्मुक्त धारा जैसा है।यही कारण है कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ने उनसे प्रभावित होकर स्वामी जी को विश्व व्याख्याता की उपाधि से विभूषित किया था।ध्यातव्य है कि यह उपाधि आजतक स्वामी जी के अतिरिक्त किसी अन्य को नहीं दी गयी है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य की पूर्णता उसके अपने संघर्षों की प्रतिफल होती है।संघर्ष मुक्ति के हेतु और जीवनमूल्यों के अनुशीलन के प्रतिफल होते हैं।जिनके द्वारा मनुष्य की आंतरिक शक्तियां पूर्णता को प्राप्तकरती हुई देवत्व स्वरूप को प्राप्त करती हैं।यही जीवन का मूल उद्देश्य भी होता है।