Home Ayodhya/Ambedkar Nagar अम्बेडकर नगर शुभचिंतक एवम प्रशंसक–उदय राज मिश्रा

शुभचिंतक एवम प्रशंसक–उदय राज मिश्रा

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अंबेडकर नगर। रामावतार के समय का विशद व सुंदर वर्णन करते हुए गोस्वामी जी ने लिखा है-

जाकर नाम सुनत सुभ होई।

मोरे   गृह   आवा  प्रभु सोई।।

   अर्थात जिसका नाम मात्र स्मरण ही कल्याणप्रदायक होगा,मंगलकारी होगा वही शुभ संज्ञक होगा।इसप्रकार अपने किसी खास का या सर्वजन का सर्वदा मंगल व कल्याण की कामना करने वाला ही शुभचिंतक कहलाता है।शुभचिंतक को अंग्रेज़ी भाषा मे वेल विशर तो हिंदी में हितैषी,शुभेक्षु आदि पर्यायों से जाना जाता है।

   भगवान शंकर को जगत कल्याण और लोकमंगल को ध्यान में रखते हुए विषपान करने के कारण ही सदाशिव कहा जाता है।सृष्टि में देव, दनुज,अंडज,पिंडज,खेचर,भूचर,चलाचल जो भी हैं,सब शिवांश ही हैं।जगदीश्वर होने की उपाधि भी उन्हें सृष्टि का शुभेक्षु होने के कारण ही मिली है।

    प्रश्न जहाँतक प्रशसंक की व्याख्या का है तो प्रशंसा अर्थात किसी की बड़ाई करने वाला ही प्रशंसक कहलाता है।प्रशंसा गुणग्राही व अवगुण प्रधान दोनों ही रूपों में हो सकती है।सद्कार्यों तथा सदवृत्तियों का बखान ही वास्तविक प्रशंसा होती है,हालांकि ऐसे लोग कम ही मिकते हैं जो किसी की गुण आधारित सदवृत्तियों का बखान करें,तथापि ऐसे ही लोग प्रशंसक कहे जाते हैं।प्रशंसा का दूसरा रूप चाटुकारिता,चापलूसी,मक्खनबाजी है।जिसमें व्यक्ति सामने वाले से स्वार्थ या उसके डर से उसके अवगुणों को भी गुण की तरह बखान करने लगता है।ऐसे लोग विष से भी भयानक और जहरीले होते हैं।तभी तो तुलसी जी लिखते हैं कि-

निंदक नियरे राखिये,आंगन कुटी छवाय।

    निंदा भी एकप्रकार की प्रशंसा ही है जोकि अवगुण या दोष को दोष या कमी रूप में ही जस की तस कहा जाता है।निंदा सदैव कमियों की होती है,जिनमे सुधार करके व्यक्ति सन्मार्गी  बन सकता है।जिससे वह प्रशंसा का असली उत्तराधिकारी बनता है।यही कारण है कि सुभाषितरत्नानिभण्डागाराम में निंदकों और शत्रुओं तक कि प्रशंसा की गयी है।यथा-

जीवन्तु मे वैरिगणा: सदैव, येषां प्रसादात विचक्षणो अहम।

   कदाचित शत्रु प्रशंसा का मुख्य उद्देश्य भी शुभ की चिंता ही है।शत्रु सदैव छिद्रों की,कमियों की,बुराइयों की खोज बड़ी सहजता से कर लेते हैं,जिनका ज्ञान किसी व्यक्ति को बड़ी कठिनाई से होता है।अतः यदि शत्रु दानेदार हो तो वह नादान मित्रों से हजार गुना बेहतर होता है।इसप्रकार शत्रु प्रशंसा भी उसके शुभ की चिंता की बजाय उप पर प्रहार करने की जुगत होती है किंतु यदि सामने वाले को अपनी कमी मालूम हो जाती है,भले ही शत्रुओं द्वारा मालूम हो तो भी,वह सचेत हो सकता है,अपनी कमियों को सुधार सकता है औरकि अपने को सुरक्षित कर सकता है।

   इसप्रकार शुभचिंतक और प्रशंसक दोनों एक से दिखने व लगने वाले शब्द होते हुए भी अर्थभेद से अत्यंत भिन्नताएं रखते हैं।शुभचिंतक निंदक हो सकता है किन्तु वैरी नहीं हो सकता,चाटुकारिता नहीं कर सकता है।जैसे कि रामचरित मानस में रावण के सचिव माल्यवान,राजस्थान के इतिहास में महावीर गोरा व बादल तथा अन्यान्य उदाहरण हैं।समाज में सर्वमंगल की शिक्षा देने वाला शिक्षक भले ही विद्यार्थियों की नजर में कठोर हो किन्तु वास्तव में वही असली शुभचिंतक होता है।

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